कोलकाता से ग्राउंड रिपोर्ट: हर टैक्सी पर लिखा है ‘नो रिफ्यूजल’, मतलब नाफरमानी पसंद नहीं, सत्ता में आई हर पार्टी ने दिखाया अपनी बात कैसे मनवाते हैं
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कोलकाता में कमोबेश सभी टैक्सियों पर ‘नो रिफ्यूजल’ लिखा है। वैसे तो यह यात्रियों की सुविधा के लिए है लेकिन, ममता और उनकी पार्टी के इस मिजाज की भी गवाही है कि उसे नाफरमानी पसंद नहीं।
- बंगाल चुनाव में जारी टकराव से बन रही भविष्य की बड़ी सियासी हिंसा की पृष्ठभूमि
16 अगस्त, 1990 को सत्ताधारी कॉमरेडों के हमले में मरने से बचीं ममता बनर्जी ने 2011 में सत्ता संभाली तो टैक्सियों पर ‘नो रिफ्यूजल’ लिखवाया। कोलकाता में कमोबेश सभी टैक्सियों पर यह लिखा है, इसका मतलब है इनकार नहीं… जो कहा, उसे करो। वैसे तो यह यात्रियों की सुविधा के लिए है लेकिन, ममता और उनकी पार्टी के इस मिजाज की भी गवाही है कि उसे नाफरमानी पसंद नहीं।
कॉमरेडों ने 1990 में ममता को नाफरमानी की ‘सजा’ दी। उनके सिर में 16 टांके लगे थे। कांग्रेसियों के हिस्से सबसे ज्यादा करतूतें हैं। सबने एकाधिकार से बंगाल को चलाया और हिंसा को सियासी संस्कृति बना दिया। इस बार एकाधिकारवादी मिजाज की टीएमसी-भाजपा आमने-सामने हैं, इसलिए सवाल उठ रहा है कि क्या हिंसा नया रिकॉर्ड बनाएगी? वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव से तेज होता संघर्ष आगे की बड़ी हिंसा की जमीन बना रहा है। ममता कहने लगी हैं कि सरकार हमारी बनेगी।
चुनाव बाद केंद्रीय सुरक्षाबलों को जाने तो दो, फिर देखना…इसका भयावह अर्थ समझा जा सकता है। हालांकि, वे नई बात नहीं बोल रहीं। बंगाल में जिसका राज आया, उसने दिखाया बात कैसे मनवाते हैं और जो नहीं मानते, उनसे क्या होता है? सिंगूर और नंदीग्राम की हिंसा में पुलिस के अलावा कॉमरेडों के हिंसक सेनानियों के हाथ दिखे थे। ममता को मौका मिला तो उन्होंने कम्युनिस्ट प्रतीक, पसंदों को किनारे किया। अब भाजपा, भगवा रंगने की कोशिश में है।
बंगाल में सियासी विरोधी के सफाये की शुरुआत साठ के दशक में हुई। 1967 में नक्सलबाड़ी (दार्जिलिंग जिला) के किसानों ने हथियार उठाए और चौतरफा खून-खराबा हुआ। वर्ष 1977 से 2007 तक 28 हजार लोग सियासी हिंसा में मारे गए। गृहमंत्री अमित शाह कई बार कह चुके हैं कि राजनीतिक हत्याओं में बंगाल सबसे ऊपर है। वहीं, टीएमसी दावा करती है कि 2001 से 2011 के बीच वाम मोर्चे के राज में 663 सियासी हत्याएं हुई। जबकि 2011 से 2019 के बीच टीएमसी राज में आंकड़ा 113 ही है।
बेरोजगार युवाओं के लिए चुनाव बड़ा मौका, इनके खून में नो रिफ्यूजल है
बंगाल में कारखाने बंद हुए तो बेरोजगारी बढ़ी और खेती घाटे का सौदा बनी। ऐसे में युवाओं के पास एक ही रोजगार है-पार्टी से जुड़ो, उसे जिताओ और गांव में सरकारी ठेका लो। यही तोलाबाजी का बेसिक है। ममता ने युवाओं की चेन बनाई है। बंगाल के सभी क्लबों को सरकारी मदद मिलती है। पहले यह चेन कॉमरेडों की थी। पब्लिक को इसी चेन से घर तक बनाने तक की ‘अनुमति’ लेनी होती है। उसके खून में ‘नो रिफ्यूजल’ है।